चुनाव प्रचार में पीछे क्यों रहते हैं अखिलेश, 2014 से लगातार हारने के बावजूद नहीं बदल रहे रणनीति?

एकतरफ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यूपी के तीन जनपदों में पहुंचकर चुनावी सभा सोमवार को कर चुके हैं. वहीं समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव निकाय चुनाव की रणनीति बनाने में अभी भी जुटे हैं. समाजवादी पार्टी निकाय चुनाव के प्रचार की कवायद में बीजेपी के सामने बौनी नजर आ रही है. सपा लगातार साल 2014 से ही बीजेपी के खिलाफ घुटने टेक रही है, लेकिन सपा की रणनीति में हार के बावजूद कोई खास बदलाव नजर नहीं आ रहा है.

नगर पंचायत, नगर पालिका और नगर निगमों का चुनाव 4 और 11 मई को और परिणाम 13 मई को घोषित किए जाएंगे. ये तो तय है, लेकिन सपा के स्टार प्रचारक मैदान से अभी भी दूर हैं. हालांकि अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी के संगठन की अच्छी समझ रखने वाले चाचा शिवपाल यादव को इटावा, मैनपुरी और फिरोजाबाद में प्रचार की बागडोर थमाई है, लेकिन वो खुद चुनावी मैदान में उतरने को लेकर योजना बनाने में ही जुटे हैं.

निकाय चुनाव को लेकर सपा की रणनीति में ढिलाई क्यों?
खबरों के मुताबिक इटावा, मैनपुरी और फिरोजाबाद में अखिलेश यादव सपा प्रत्याशिकों के लिए प्रचार करने आने वाले हैं, लेकिन उनके आने की तारीख को लेकर कई सारी बातें सामने आनी बाकी हैं. कहा जा रहा है कि डिंपल यादव भी मैनपुरी में प्रचार करने आ सकती हैं, लेकिन पुख्ता तौर पर कार्यकर्ता अखिलेश यादव और डिंपल यादव को लेकर कई जानकारी हासिल करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं.

जाहिर है, बीजेपी के गढ़ में भी समाजवादी पार्टी के प्रचार के अभियान को संभालने की जिम्मेदारी भी चाचा शिवपाल के हाथों में है. इसलिए अखिलेश यादव की पूरी रणनीति निकाय चुनाव को जीतने को लेकर चाचा शिवपाल के ऊपर ही टिकी है. जाहिर है, एकतरफ बीजेपी निकाय चुनाव में अपने छोटे-बड़े नेताओं की पौध को मैदान में उतार चुकी है तो वहीं समाजवादी पार्टी की रणनीति अभी भी बीजेपी के सामने कमजोर दिख रही है.

बीजेपी समाजवादी पार्टी से कोसों आगे कैसे दिख रही?
बीजेपी एक तरफ सोमवार को अपने तुरूप के इक्के योगी आदित्यनाथ को सहारनपुर, शामली और अमरोहा के चुनाव प्रचार में उतारकर चुनावी संग्राम का जोरदार आगाज कर चुकी है. इसी कड़ी में बीजेपी के दो उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक गाजियाबाद से और केशव प्रसाद मौर्य झांसी से बीजेपी उम्मीदवार के पक्ष में शंखनाद करते दिखाई पड़े हैं.

जाहिर है, बीजेपी की चुनाव लड़ने की चिर परिचित आक्रामक शैली निकाय चुनाव में भी दिखाई पड़नी शुरू हो गई है. बीजेपी नेताओं की लंबी पौध सूबे के कई शहरों में चुनाव प्रचार में जुट गई है. इनमें कैबिनेट मंत्री सूर्य प्रताप शाही अयोध्या, कैबिनेट मंत्री स्वतंत्र देव सिंह कानपुर, सुरेश खन्ना शाहजहांपुर में पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में चुनावी माहौल बनाते नजर आ रहे हैं.

इस कवायद में नए और पुराने नेता भी शामिल हैं, जिनकी मदद से उनकी साख वाले इलाकों में चुनाव जीतने की तैयारी है. बीजेपी के पूर्व केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगवार, जेपीएस राठौड़ सरीखे नेता चुनावी मैदान में डंटकर बीजेपी उम्मीदवारों के पक्ष में जीत सुनिश्चित करने में जुटे हैं.

ऐसे में समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेताओं का रणनीति बनाने में पिछड़ना मजबूत विरोधी के सामने पहले ही नतमस्तक होने के समान है. जाहिर है, निकाय चुनाव का दारोमदार चाचा शिवपाल यादव के भरोसे छोड़ा गया है और पार्टी की हार होती है तो ठीकरा उनके सिर ही फोड़ा जाएगा, लेकिन सपा पुरानी गलतियों से सबक लेती हुई फिलहाल दिखाई नहीं पड़ रही है.

लगातार चुनाव में शिकस्त खाने वाले अखिलेश चुनाव प्रबंधन में पिछड़ क्यों जाते हैं?
साल 2022 में भी अखिलेश यादव ने विधानसभा चुनाव प्रचार की शुरुआत देर से की थी. कोविड की वजह से अखिलेश यादव घर के बाहर निकलने से परहेज करते दिखे थे. वहीं उनकी ज्यादातर गतिविधियां ट्विटर पर उजागर होती दिख रही थी. विपक्ष के नेता के तौर पर अखिलेश यादव का ये रवैया जनता को नागवार गुजरा था.

कोविड की वजह से लॉकडाउन हटने के बाद अखिलेश यादव का ज्यादा समय उम्मीदवारों के चयन में बीता, जबकि बीजेपी अपनी रणनीतियों को जमीन पर उतारने की कवायद में काफी आगे बढ़ चुकी थी. अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव प्रचार के दरमियान भी देर से चुनाव प्रचार करने उतरे थे. इतना ही नहीं अखिलेश यादव सपा के सीनियर नेताओं का इस्तेमाल सही समय और सही जगहों पर करने में नाकामयाब रहे थे, जिसका खामियाजा उन्हें हार के रूप में भुगतना पड़ा था.

विधानसभा चुनाव के दरमियान समाजवादी पार्टी के सहयोगी ओमप्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य सरीखे नेता समाजवादी पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने से वंचित रह गए थे, क्योंकि उन्हें तीसरे और चौथे राउंड में हेलीकॉप्टर की मदद से प्रचार करने के लिए उतारा गया था. बीजेपी और सहयोगी पार्टियां इसका फायदा 274 सीटें जीतकर उठाने में सफल रही थीं.

BJP ने अपने दम पर हासिल किया था 41.3 फीसदी मत
बीजेपी अपने दम पर 41.3 फीसदी मत हासिल करने में सफल रही थी, जबकि सपा 32.1 फीसदी मत पाकर 111 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. सपा साल 2017 की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर पाई थी, लेकिन ये प्रदर्शन एक बार फिर सपा के हाथ से सत्ता को दूर रखने की वजह बना था.

अखिलेश यादव का रवैया आजमगढ़ और रामपुर के उपचुनाव में भी हैरान करने वाला था. इसलिए समाजवादी पार्टी परंपरागत सीट को बचाने में वहां भी नाकामयाब रही थी. जाहिर है, चुनाव प्रचार के तरीकों और नेतृत्व की वजह से अखिलेश यादव एक के बाद एक चुनाव लगातार हारते रहे हैं, लेकिन उनके तौर तरीकों में खासा परिवर्तन देखा नहीं जा रहा है.

पिता मुलायम से काफी अलग कैसे हैं अखिलेश?
मुलायम सिंह यादव जमीन से जुड़े नेता थे, जिन्हें गरीबी की असलियत और सत्ता के गलियारे की हकीकत दोनों मालूम थी. यही वजह है कि अयोध्या में तथाकथित बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद भी मुलायम सिंह यादव यूपी में बीजेपी के कमल को खिलने से रोक पाने में सफल रहे थे. मुलायम सिंह यादव ने मौके की नजाकत को समझते हुए कांशीराम से समझौता किया था और बीजेपी सहित तमाम अन्य दल सपा और बसपा के सामने हवा हो गए थे.

हालांकि अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा का तमाम प्रयोग असफल रहा है. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी और साल 2022 के विधानसभा चुनाव में रालोद और सुभासपा के साथ जाना समाजवादी पार्टी के लिए मुफीद साबित नहीं हुआ है.

दरअसल, मुलायम सिंह यादव के सफल प्रयोग के पीछे कार्यकर्ताओं और नेताओं का वो विश्वास था, जिसे मुलायम सिंह यादव साधे रहने में हमेशा सफल रहे थे. मुलायम सिंह यादव के साथ दूसरे पंक्ति में जनेश्वर मिश्र, रेवती रमण सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा और आजम खान सरीखे नेता थे, जो मुलायम सिंह यादव की साख को मजबूत करने में सहायक थे.

पुराने समाजवादियों को जोड़े रखने में अखिलेश नाकामयाब
वहीं अखिलेश यादव ऐसे नेताओं का साथ बनाए रखने और पुराने समाजवादियों को जोड़े रखने में नाकामयाब रहे हैं. किसान आंदोलन के बावजूद जाटों की बेल्ट में सपा और रालोद का खराब प्रदर्शन अखिलेश यादव के नेतृत्व को लेकर कई सवाल खड़े कर चुका है. अखिलेश यादव जाटों के बीच गहरी पैठ बनाने की कोशिश में गुर्जरों, सैनी सहित दलितों के बीच पैठ बनाने में नाकामयाब रहे थे. वहीं मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने की वजह से जाटों में भी भरोसा कायम रखने में सफल नहीं हो पाए थे.

यही वजह है कि बीजेपी लगातार अखिलेश यादव को एक के बाद एक चुनाव में पटखनी देती रही है. निकाय चुनावों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ समेत तमाम नेता मैदान में उतरकर सरकार द्वारा किए गए प्रयासों को गिनाने में जुटे हैं, लेकिन सपा के बड़े नेता अभी भी मैदान से नदारद हैं. ऐसे में अखिलेश यादव के लिए बीजेपी को निकाय चुनाव में पटखनी देना आसान नहीं रहने वाला है.

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